दिव्य सत्संग - Anmol Bachan

*_🌺दिव्य सत्संग🌸_*

*_देह को 'मैं' मानकर अहंकार करना नरकों के दुःखों के भीष्ण अग्नि में फँसना है। आत्मा को 'मैं' मानकर अहंकार करना अर्थात् अपने को आत्मा जानना सारे दुःखों से निवृत्त होना है। यह आत्म-अहंकार इतना शुद्ध है कि वह पूरा निरहंकारी है। जो पूरा निरहंकारी है वह पूरा अहंकार कर सकता है। जो पूरा अहंकार कर सकता है वह पूरा निरहंकारी है। पूरा अहंकार करो कि 'मैं ब्रह्म हूँ। ब्रह्मा, विष्णु और महेश में जो चैतन्य आत्मा है, परमात्मा है वही मेरा आत्मा है, वही मैं हूँ।'_*

*_यह पूरा अहंकार है। ऐसा अहंकारी किसको दुःख देगा ? किसको छोटा मानेगा ? वह महसूस करेगा की : 'मैं श्रीकृष्ण में हूँ.... मैं क्राइस्ट में हूँ... मैं राम में हूँ.... मैं रहीम में हूँ.... मैं हनुमान में हूँ.... मैं कुत्ते में भी हूँ....।' लोग तर्क करते हैं कि अगर सबमें भगवान हैं तो पति पत्नी को डाँटता क्यों है ? पत्नी पति के प्रतिकूल क्यों होती है ?_*

*_पत्नी प्रतिकूल होती है या पति प्रतिकूल होता है या पशु प्रतिकूल होता है। पशु का, पति का या पत्नी का चेतन प्रतिकूल नहीं होता। 'सबमें भगवान है तो पशु को डण्डा क्यों मारते हो ? सबमें भगवान है तो बेटे को डाँटते क्यों हो ?' लोग ऐसे तुच्छ तर्क करते हैं।_*

*_इस प्रश्न को इस प्रकार समझो। तुम्हारे अपने शरीर में तो तुम सर्वत्र हो ना? हाँ। तो अपनी आँख पर मच्छर बैठे तो उसको एक ढंग से उड़ाते हो और पैर पर मच्छर बैठे तो थप्पड़ मार कर उड़ाते हो। ऐसा क्यों ? आँख और पैर दोनों तुम्हारे ही हैं, फिर दोनों के प्रति व्यवहार में इतना पक्षपात क्यों ? अपने गाल पर हाथ आता है तो हाथ को गन्दा हुआ नहीं मानते। सुबह शोच  जाकर हाथ से सफाई करके हाथ को साबुन से धो लेते हो ? क्यों ? !_*

*_सब एक ही शरीर के अंग हैं फिर भी सबके साथ यथायोग्य भिन्न-भिन्न व्यवहार किया जाता है। ऐसे ही सर्वव्यापक ईश्वर को जानने वाले महापुरुष, ब्रह्मवेत्ता व्यवहार काल में भिन्न-भिन्न व्यवहार करते हुए दिखेंगे लेकिन परमार्थ से उनकी दृष्टि में अभिन्नता है।_*

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